Sunday, December 13, 2015

कैलेंडर

आज सुबाह कैलेंडर पर नज़र पड़ी, तो महसूस हुआ।
कि मैं उसके वरख बदलना भूल गया था।
वक़्त मानो तो थम सा गया था उसके मायूस से चेहरे पे।
कि नवम्बर ऑने पर भी, वो सितम्बर में छूट गया था।

वरख बदलने लगा, तो दिल मे एक ख़याल आया।
कि क्यों न एक मासूम सी शरारत की जाए।
और लड़कपन के खेल की तरह, ज़रा सी रोमंची करके।
अक्टूबर का महीना; फिर से जिया जाए।

कुछ अधूरे ख़्वाब, एक अदद आरज़ू, थोड़ी सी क्षधतें।
और चंद अदजिए पल; क्यों न फिर से जिए जाए ।
और वक़्त की सिहाई से, इस ज़िंदगी की किताब पे ।
क्यों न कुछ नए ख़ूबसूरत नुखतें; जोड़ दिए जाए।

Monday, November 9, 2015

ख्वाब

ऐक अरसे बाद यकायक ;
आज़ ख़ुद से मुलाक़ात हुई। 
कुछ देर लगी पहचानने में;
गोया कि नयी पहचान लगी।।

पहले अकसर मिला करते थे;
ज़िंदगी की तंग गलियों में। 
और घंटो बातें होती थी;
सस्ती चाय की चुस्कियों पें।।

गिरती बारिश की बूंदों मैं ;
मोती चुना करते थे। 
और झाड़ों की नाज़ुक सुनहरी धूप के;
गहने भुना करते थे।।

रात को कोठे पे, मंझी में  लेटे लेटे;
साथ साथ, चाँद तका करते थे। 
और सर्द तारों की छाओं में;
ख़्वाब पिरोया करते थे।।

पर ज़िन्दगी की तंग गलियां तोड़ के ;
अब खुली सड़कें मैंने बनायीं हैं।  
और रफ़्तार भरी इस ज़िन्दगी में ; 
एक भीड़ उमड़ आई हैं।।

इस भीड़ में कहीं , वोह मगर ;
कुछ गुमशुदा सा हो गया। 
और ख्वाब तो पूरे हुए अपने ;
पर शायद वह कहीं गिरवी रह गया।।